>
हम सभी के जीवन में कई समस्याएं आती है और समय के साथ चली भी जाती है, परन्तु कुछ समस्याएं जीवन भर साथ रहती है। और एक समय के बाद हम उन समस्याओ के साथ जीना सीख लेते है। कुछ समस्याएं सीधे हमसे जुडी होती है उनसे तो हम फिर भी लड़ लेते है या समझौता कर लेते है। लेकिन जब समस्या अपने बच्चो के साथ हो तो फिर नियति से भी लड़ने को तैयार रहते है। एक ऐसी ही समस्या है आटिज्म जिसके बारे में आज हम बात करने जा रहे है।
आटिज्म एक ऐसी स्थिति है जिसमे बच्चो का उम्र के साथ साथ पूर्ण विकास नहीं हो पाता। बच्चा देर से बोलना सीखता है , दूसरे बच्चो के साथ घुलमिल नहीं पता , दैनिक कार्यो को करने में दिक्कते आती है। परन्तु इन सबके बावजूद यदि उस बच्चे को समय पर इलाज मिल जाये तो काफी हद तक इस पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन आवश्यकता होती है सही डॉक्टर और थेरेपिस्ट की जो सही समय पर सही तरीके से आपकी मदद कर सके।
ऐसे बहुत से बच्चे है जो इस समस्या से काफी हद तक बाहर आ चुके है। ऐसे ही बच्चो और उनके माता पिता की संघर्ष यात्रा को आप सभी के सामने लाने का एक छोटा सा प्रयास हमारी टीम ने किया है। इसी कड़ी में हमने बातचीत कि श्री संजय जी से और उनसे उनका अनुभव शेयर करने की अपील की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के कुछ अंश
मैं भारत सरकार के एक नवरत्न उपक्रम पावर ग्रिड कारपोरेशन ऑफ इंडिया, नई दिल्ली में चीफ मैनेजर फाइनेंस के पद पर हूँ। मैं मूल रूप से इलाहाबाद का निवासी हूँ, पर जब से बेटे सान्निध्य के ऑटिस्म बीमारी का पता चला है, उसके इलाज व पढ़ाई की संभावनाओं को देखते हुए दिल्ली एनसीआर में ही रहने का निर्णय लिया। मैं अब पिछले 20 वर्षों से फरीदाबाद में हूँ। बचपन से सामाजिक, खेल कूद, रंगमंच और साहित्यिक गतिविधियों में एक्टिव था, जो अब बेटे की जिम्मेवारियों के साथ कम हो गई हैं। नवंबर 18 में ब्रेन हैमरेज के बाद एक बार डॉक्टरों ने मुझे जवाब दे दिया था, पर कई माह ICU में रहने के बाद अब ऑफिस जा रहा हूँ। स्वास्थ्य संघर्ष जारी है और ऐसे में अपने साथ ही बेटे के भविष्य की चिंता और बढ़ गई है।
जब बेटा लगभग 2 साल का हुआ तब वो एक या दो शब्द से अधिक नही बोल पाता था। तब हमें लगा कि कुछ गड़बड़ है। फिर इससे 5 साल बड़ा हमारा एक और बेटा है, जो नार्मल है। उसकी तुलना में भी यह स्लो दिख रहा था। हमने डॉक्टरों की सलाह लेने की सोची पर यह समझ नही आ रहा था किस प्रकार के विशेषज्ञ को दिखाएं। सबसे पहले एक चाइल्ड स्पेशलिस्ट से पूछा तो उन्होंने ENT स्पेशलिस्ट के पास भेजा। उन्होंने जांच करके बताया कि बच्चे के स्पीच ऑर्गन्स में कोई कमी नहीं है इसलिए स्पीच थेरेपी से कोई फायदा नहीं है, समस्या कहीं और है। मैं आज तक उस डॉक्टर का आभारी हूँ क्योंकि उन्होंने हमें अनावश्यक स्पीच थैरेपी से बचा लिया।
आज भी मैं देखता हूँ कि ऑटिस्म प्रभावित बच्चों के माता पिता Delayed Speech पर सबसे पहले स्पीच थैरेपिस्ट के पास भागते हैं, जिसे ऑटिस्म का ABC भी पता नहीं होता। फिर उन्ही ENT स्पेशलिस्ट ने हमें चाइल्ड Psychologist से मिलने की सलाह दी। जब हम उनसे मिले तो कई सवालों के बाद उन्हें समझ में आ गया कि सान्निध्य को ऑटिस्म है। लक्षण के तौर पर हमे दिखा की उसे सिर्फ रोटेटिंग ऑब्जेक्ट्स से खेलना, अपनी दुनिया में गुम रहना, हमारी बात समझना पर अपनी बात न बोलना, जिद और भावुकता की अति है। तब हमने पहली बार ऑटिस्म का नाम सुना।
एक ऐसी बीमारी जिसका न तो ओरिजिन मेडिकल साइंस में पता है और न इलाज, यह हमारे लिए एकाएक बहुत बड़ा झटका था, पर इससे जूझना ही था। परिवार वालों को पहले तो मैंने बताया नहीं फिर जब बताया भी तो वे संवेदना के अतिरिक्त दे भी क्या सकते थे। हम पति-पत्नी ने अपने अपने मोर्चे बांट लिए। पत्नी ने तय किया कि वह कोई जॉब नहीं करेगी और बेटे के साथ मेहनत करेगी। मैंने सभी की तरह गूगल पर रिसर्च शुरू की और हर छोटी से छोटी उम्मीद के बारे में पता किया। 100 में से 99 सूचनाओं में निराशा मिली पर हम लगे रहे।
ऑटिस्म के इलाज में सबसे बड़ी दिक्कत तो यही है कि 50 प्रतिशत से अधिक डॉक्टर इस बीमारी का नाम भी नहीं जानते। स्कूल, हॉस्पिटल, समाज और परिवार सभी इन बच्चों को मेंटली रेटर्डेड ही मानते हैं, जबकि ये उनसे एकदम अलग हैं। हमने स्कूल के चपरासी, बस ड्राइवर, नर्स, पड़ोसी और रिश्तेदार धीरे-धीरे सभी को अवेयर करने की कोशिश की और अधिकांश ने इतना अधिक सहयोग किया कि जिसकी हम उम्मीद नहीं करते थे।
बेटा ऑटिस्म के अलावा अन्य बीमारियों से भी घिरा हुआ था, जैसे अस्थमा। लेकिन हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या थी, उसका न बोलना। हमें इसके लिए यह प्रयास करना था कि सान्निध्य का ज्यादा से ज्यादा नार्मल लोगों और बच्चों के साथ इंटरेक्शन हो, पर वो नए लोगों के सामने भी नही आना चाहता था। लेकिन स्कूल में धीरे-धीरे क्लास के बच्चों के साथ नार्मल होने लगा। इसी बीच हमने उसे मेगा विटामिन थेरेपी देना शुरू किया। जिसका बहुत फायदा मिला और उसके कंसंट्रेशन और कम्युनिकेशन में सुधार हुआ और वह कब बोलना सीख गया हमें पता ही नही चला। स्कूल में उसके ऑटिस्टिक और नार्मल दोनों ही फ्रेंड बन गए। गुस्से में उसे जमीन पर सर पटकने की आदत थी, जिद की आदत भी थी और हल्का सा डांटने पर उसे नार्मल होने में कई दिन लगते थे। हफ्ते में एक दिन उसे एक्शन फ़ॉर ऑटिस्म intervention के लिए ले जाते थे। जिसे खिड़की से देखकर मेरी पत्नी ने वैसी ही और एक्सरसाइजेज डिज़ाइन की जो पूरे हफ्ते कराती रहती थी। इलाज के लिए डॉक्टर एकता सोनी अपोलो का भी सहयोग मिला और AADI के थेरेपिस्ट जो Eicher स्कूल में आया करते थे।
ऑटिस्म के लिए आज बड़े शहरों में सैकड़ों संस्थाएं काम कर रही हैं पर उनमें से अधिकांश छोटे बच्चों पर ही काम कर रहे हैं। 10 साल से बड़े बच्चे के लिए अभी भी कुछ नहीं है। 90 % संस्थाएं आज अपना नाम या पैसा कमाने पर काम कर रहे हैं। उनका उद्देश्य अब केवल सरकार या विदेशों से ग्रांट लेना रह गया है। छोटे शहरों में तो अब भी कुछ है ही नही। AADI ही मुझे एकमात्र संस्था लगी जो निःस्वार्थ अच्छा काम कर रहे हैं। एडल्ट्स के लिए डॉक्टर कुंद्रा जी का ऑटिस्म आश्रम एक बिल्कुल नया कांसेप्ट है और ऐसे आश्रम हर शहर में खुलने चाहिए। AFA के 15 साल पुराने टीम संगीता, शिखा, Anni आज भी याद आते हैं, पर अब वहां भी पहले जैसा फील नही होता।
जब पहली बार बेटे के ऑटिस्म का पता चला तब मन में आशंका थी कि क्या वह कभी नर्सरी स्कूल भी जा सकेगा। पर धीरे-धीरे सभी के सहयोग और मार्गदर्शन और कुछ हमारी और बेटे की खुद की मेहनत से आज उसने 12th तक रेगुलर स्कूल से पढ़ाई कर ली है। अभी भी हमें उसके आने वाले भविष्य के बारे में चिंताए हैं। पहली चिंता उसकी आजीविका की है। सरकारी नौकरियों विशेषकर स्टाफ सिलेक्शन कमीशन ने मानसिक दिव्यांग के लिए कुछ रिजर्वेशन रखे है। मेरे ICU में होने के कारण इस वर्ष की vacancy भरना रह गया, अगले साल भरवाएंगे। मुझे क्लास 4 यानी MTS की पोस्ट में भी कोई आपत्ति नही है। मैंने इंटरनेट पर देखा कि ऐसे बच्चे लाइब्रेरी में सफल होते हैं, इसलिए 12th में उसे लाइब्रेरी साइंस भी पढ़ाया। अगर सफल नही हुआ तो किसी आसान बिज़नेस के बारे में सोचेंगे।
हमारे बाद उसका जीवन क्या होगा यह भी एक समस्या है, क्योंकि हमारा दूसरा बेटा एक ऐसी जॉब में है कि भविष्य में उसका भाई के लिए समय निकाल पाना शायद मुश्किल हो। ऑटिस्म आश्रम Hyderabad जहां घर, स्कूल, एक्टिविटीज, थेरेपी, स्पोर्ट्स, सबको एक में मिला दिया गया है, सुनने में अच्छा लगता है, पर देखा नही है और उनके पास अब vacancy भी नही है। अवसर मिला तो किसी शारीरिक विकलांग से हम इसके विवाह का प्रयास करेंगे ।
18 वर्ष के इस सफर में हमारे प्रयास भी शायद अपूर्ण रहे क्योंकि हम अभी भी उसे पूरी तरह से आत्म निर्भर नही बना सके। लेकिन हमारी कोशिश जारी है। पिछले 18 सालों में इन बच्चों के इलाज की सुविधाओं में कोई अंतर नही आया और ना ही जागरूकता में, जो चिंता की बात है। सरकार ने जो नियम बनाये हैं, उन्हें लागू करने की कोई व्यवस्था नही है।
हर ऑटिस्टिक बच्चे में कुछ ऐसी क्षमता होती है जो उसे नार्मल बच्चों से भी ऊपर ले जा सकती है,पर अक्सर हम उसे पहचान नही पाते।जब सान्निध्य 5 या 6 साल का था तब भी वह किसी भी तारीख का दिन बिना कैलेंडर देखे बता देता था जबकि उस समय उसे मैथ बिल्कुल भी नही आती थी।19 साल की उम्र में हमने उसे Casio सीखने के लिए भेजना शुरू किया , उसके गुरु ने उसकी गायन शक्ति को पहचाना और जो गाना बिना ट्रेनिंग उसने स्टेज शो में गाया, वह सराहा गया और अब हम उसे गायन की प्रॉपर ट्रेनिंग की सोच रहे हैं।
ये थे हमारे संजय जी से बातचीत के कुछ अंश। आशा करते है की आपको ये अंश जरूर पसंद आये होंगे । यदि आपके मन कोई प्रश्न या शंका हो तो आप हमसे WhatsApp 9911538884 के माध्यम से जुड़ सकते है।